आहिस्ता-आहिस्ता खोले हैं पर, उड़ना है आसमां चाहिए

आहिस्ता-आहिस्ता खोले हैं पर, उड़ना है आसमां चाहिए
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सृजन के नए बीज तलाशने की कवायद के लिए 'सरोकार' की शुरूआत
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लूनकरणसर, 07 मई।
'आहिस्ता-आहिस्ता खोले हैं पर, उड़ना है आसमां चाहिए।' की हुंकार भरने वाले नव सृजनकर्ताओं की आंखों में पल रहे सपनों को एक विजन देने के उदेश्य से रविवार को 'सरोकार' की शुरूआत की गई। भीमसेन चौधरी किसान छात्रावास में आयोजित इस कार्यक्रम में वरिष्ठ बाल साहित्यकार रामजीलाल घोड़ेला ने कहा कि साहित्य समाज को संस्कारित करता है। समकालीन जीवन के तनाव व संत्रास से मुक्ति पाने के लिए साहित्य की शीतल छाया जीवन को सुकून प्रदान कर सकती है। साहित्यिक संवाद 'सरोकार' में उन्होंने कहा कि साहित्य लेखन के लिए नियमित रूप से पढ़ना जरूरी है । सरोकार को परिभाषित करते हुए युवा रचनाकार राजूराम बिजारणिया ने कहा कि लेखन के लिए निरंतर अभ्यास आवश्यक है । कवि-कहानीकार मदन गोपाल लढ़ा ने कहा कि साहित्य के समकालीन परिदृश्य व विमर्श से भी हमें अवगत होना चाहिए। निबंधकार कमल किशोर पिपलवा ने कहा कि साहित्य सामाजिक बदलाव की भूमिका को निर्मित करता है । कहानीकार जगदीश नाथ भादू, केवल शर्मा ने अपनी रचनाएं बानगी स्वरूप पेश की।  इस अवसर पर संदीप पारीक निर्भय, अजय थोरी, धर्मपाल रोझ, अभिजात चौधरी, अजय झोरड़, भूपेंद्र नाथ, रामनिवास रोझ, महेंद्र रोझ, अशोक झोरड़ ने अपना रचना पाठ करते हुए अपने विचार साझा किए। चैनरूप कलकल ने सभी का आभार जताया।

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